पितृ पक्ष में श्राद्ध और पिंडदान का महत्व एवं तर्पण की विधि।
पितृ पक्ष (Mahalaya) क्या है?
पितृ पक्ष का नाम लेते ही हमारे मन में आस्था और श्रद्धा स्वतः ही प्रकट हो जाती है। पितृ अर्थात हमारे पूर्वज, जो अब हमारे बीच में नहीं हैं, उनके प्रति सम्मान का समय होता है पितृपक्ष अर्थात महालय। अपने पूर्वजों को समर्पित यह विशेष समय आश्विन मास के कृष्ण पक्ष से प्रारंभ होकर अमावस्या तक के 16 दिनों की अवधि पितृ पक्ष अर्थात श्राद्ध पक्ष कहलाती है। हिंदू धर्म पुनर्जन्म की अवधारणा में विश्वास रखता है और इसलिए ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान हमारे पितृ अर्थात हमारे पूर्वज जो अपना देह त्याग चुके होते हैं, पृथ्वी लोक पर अपने सगे-संबंधी और परिवार के लोगों से अपनी मुक्ति और भोजन लेने के लिए मिलने आते हैं। वास्तव में अपने पूर्वजों के निमित्त श्रद्धा पूर्वक किया हुआ कार्य ही श्राद्ध है।
ज्योतिष के अनुसार पितृ पक्ष
वैदिक ज्योतिष के अनुसार जब सूर्य का प्रवेश कन्या राशि में होता है तो, उसी दौरान पितृ पक्ष मनाया जाता है। पंचम भाव हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के बारे में इंगित करता है और काल पुरुष की कुंडली में पंचम भाव का स्वामी सूर्य माना जाता है इसलिए सूर्य को हमारे कुल का द्योतक भी माना गया है।
अमावस्या दिने प्राप्ते गृहद्वारं समाश्रिता:
श्रद्धाभावे स्वभवनं शापं दत्वा ब्रजन्ति ते॥
इस का सामान्य अर्थ यह है कि जब सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है तो सभी पितृ एक साथ मिलकर अपने पुत्र और पौत्रों (पोतों) यानि कि अपने वंशजों के द्वार पर पहुंच जाते हैं। इसी दौरान पितृपक्ष के समय आने वाली आश्विन अमावस्या को यदि उनका श्राद्ध नहीं किया जाता तो वह कुपित होकर अपने वंशजों को श्राप देकर वापस लौट जाते हैं। यही वजह है कि उन्हें फूल, फल और जल आदि के मिश्रण से तर्पण देना चाहिए तथा अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार उनकी प्रशंसा और तृप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।
व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही अपनी गति प्राप्त करता है। यह गति तीन प्रकार की होती है: उर्ध्व गति अर्थात स्वर्ग लोक प्राप्त करना, अधोगति अर्थात बुरे कर्मों के कारण मानव जीवन से नीचे की योनियों में जाना तथा स्थिर गति, जिसमें उन्हें मानव जीवन प्राप्त हो सकता है। जिस प्रकार मानव शरीर को उसका कंकाल आकार देता है और रीड़ की हड्डी मजबूती देती है, ठीक उसी प्रकार हमारे कर्म भी हमारे जीवन को प्रभावित करते हुए आने वाले समय की व्याख्या करते हैं।
जिन लोगों के वंश में हमने जन्म लिया वे हमारे पूर्वज हैं इसलिए श्रद्धा पूर्वक उनके लिए अन्न आदि का दान करना हमारा कर्तव्य भी है और इसी के कारण हम उन्हें एक प्रकार से धन्यवाद भी देते हैं।
जो लोग अपने पितरों का विधि पूर्वक श्राद्ध कर्म नहीं करते और उनकी पूजा-अर्चना नहीं करते, उनकी कुंडली में पितृ दोष का निर्माण होता है और उसके द्वारा व्यक्ति को जीवन पर्यंत अनेक प्रकार के कष्टों को भोगना पड़ता है।
आखिर क्या होता है व्यक्ति की मृत्यु के बाद?
पृथ्वी लोक पर जब किसी प्राणी की मृत्यु होती है और वह अपना शरीर त्यागता है तो वह 3 दिन के अंदर पितृ लोक पहुँचता है। इसलिए मृत्यु के तीसरे दिन तीजा मनाया जाने का विधान है। कुछ आत्माएं अधिक समय लेती हैं और लगभग 13 दिन में पितृ लोक पहुँचती हैं, उन्हीं की शांति के लिए तेरहवीं या त्रियोदशाकर्म किया जाता है। कुछ ऐसी भी आत्माएं होती हैं जिन्हें पितृ लोक पहुंचने में 37 से 40 दिन लग जाते हैं अर्थात लगभग सवा महीने में वो ये सफर तय करती है। इसलिए महीने भर के बाद मृत्यु की तिथि पर पुनः तर्पण किया जाता है और इसके पश्चात एक वर्ष (12 मास) के बाद तर्पण द्वारा बरसी की जाती है। इसके पश्चात उन्हें उनके कर्मानुसार पुनर्जन्म प्राप्त होने की संभावना होती है और उनका न्याय होता है।
जिन लोगों ने सत्कर्म किया होता है और अच्छे कर्मों की संख्या अधिक होती है उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है अर्थात बार-बार जन्म लेने के बंधन से मुक्ति मिल जाती है। यजुर्वेद के अनुसार तप और ध्यान करने वाले सद्चरित्र प्राणी ब्रह्मलोक पहुँचकर ब्रह्मलीन हो जाते हैं अर्थात उन्हें पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता। जिन लोगों ने सत्कर्म किया है और ईश्वर भक्ति में ध्यान लगाया है उन्हें स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है और वे दैवीय बन जाते हैं। जो प्राणी अत्यंत ही निकृष्ट प्रकृति के कार्य करते हैं उन्हें सद्गति प्राप्त नहीं होती और वह प्रेत योनि में भटकते हैं अर्थात उनकी आत्मा को शांति प्राप्त नहीं होती है।
इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी आत्माएं भी होती हैं जिन्हें किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए या उनके कर्मों के आधार पर इसी धरती पर पुनर्जन्म प्राप्त होता है। यहां पर यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि सभी को धरती पर जन्म लेने पर भी मनुष्य योनि मिले, यह आवश्यक नहीं, वे पशु योनि में भी जा सकते हैं। ये सभी हमारे पूर्वज होते हैं और चाहे ये किसी भी योनि में जाएं हमारे पूर्वज ही रहेंगे इसलिए इनको सद्गति प्राप्त हो इसलिए श्राद्ध कर्म पूरे विधि-विधान के अनुसार करना चाहिए।
पितृ लोक की स्थिति चंद्र अर्थात सोम लोक के उर्ध्व भाग में होती है। इसीलिए चंद्र लोक का पितृ लोक से गहरा संबंध होता है। मानव शरीर पंच महाभूतओं अर्थात पंच तत्वों से मिलकर बना होता है। जैसे पृथ्वी, वायु, जल, आकाश और अग्नि। इन पंच तत्वों में से सर्वाधिक रूप से जल और फिर वायु तत्व मुख्य रूप से मानव देह के निर्माण में सहायक होते हैं। यही दोनों तत्व सूक्ष्म शरीर को पूर्ण रूप से पुष्ट करते हैं और यही वजह है कि इन तत्वों पर अधिकार रखने वाला चंद्रमा और उसका प्रकाश मुख्य रूप से सूक्ष्म शरीर से भी संबंधित होता है।
जल तत्व को ही सोम भी कहा जाता है और सोम को रेतस भी कहते हैं। यही रेतस इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी में सूक्ष्म शरीर को पुष्ट करने हेतु चन्द्रमा से संबंधित अन्य सभी तत्व मौजूद रहते हैं।
जब मानव शरीर निर्मित होता है तब उसमें 28 अंश रेतस उपस्थित होता है। जब देह का त्याग करने के बाद आत्मा चंद्र लोक पहुँचती है तो पुनः उसे यही 28 अंश रेतस पर वापस लौट आना होता है और वास्तव में यही पितृ ऋण है। इसे चुकाने के पश्चात वह आत्मा अपने लोक में चली जाती है जहां सभी उसके स्वजातीय रहते हैं।
अब स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि वास्तव में यह 28 अंश रेतस आत्मा कैसे लेकर जाती है। तो यह जानिए कि जब भी किसी प्राणी की देह का अंत होता है तो इस पृथ्वी लोक पर उस आत्मा की शांति के लिए वंशजों द्वारा जो भी पुण्य और श्राद्ध कर्म किए जाते हैं उससे उस आत्मा का मार्ग प्रशस्त होता है। जब श्रद्धा मार्ग से पिंड तथा जल आदि का दान श्राद्ध स्वरूप किया जाता है तो यही 28 अंश रेतस के रूप में आत्मा को प्राप्त होते हैं। क्योंकि यह श्रद्धा मार्ग मध्याह्नकाल के दौरान पृथ्वी लोक से संबंधित हो जाता है इसलिए इस इस समय अवधि के दौरान पितृपक्ष में श्राद्ध किया जाता है।
पितरों की योनि एवं स्थिति
व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत उसको अपने कर्मों के अनुसार योनि प्राप्त होती है। इसका अभिप्राय यह है कि अच्छे कर्मों के कारण देव योनि प्राप्त होती है और यदि उनके वंशज उनके निमित्त विभिन्न प्रकार के मंत्रों द्वारा उच्चारण करने के उपरांत अन्न अर्पित करते हैं और पितृपक्ष के दौरान उनका पिंडदान अथवा श्राद्ध करते हैं तो उन पितरों को अमृत के रूप में उसकी प्राप्ति हो जाती है। यदि वे गंधर्व लोक प्राप्त कर चुके हैं तो यह उन्हें भोग्य के रूप में प्राप्त हो जाता है। इसके पश्चात आती है पशु योनि अर्थात यदि उनके कर्मों ने उन्हें पशु योनि में पहुंचाया है तो उन्हें श्रद्धा के कारण तृण अर्थात तिनके के रूप में प्राप्ति होती है जिससे उनकी श्रद्धा समाप्त होती है।
यदि किसी कारण उनके कर्म अत्यंत खराब रहे होते हैं और वे प्रेत योनि में भटक रहे हैं तो यही अन्न उन्हें रक्त अर्थात रुधिर के रूप में प्राप्त होता है और यदि उन्हें मनुष्य योनि प्राप्त हुई है तो यही श्रद्धा पूर्वक किया गया अन्न का भोग उन्हें अन्य के रूप में ही प्राप्त होता है और वे तृप्त हो जाते हैं। इस प्रकार पूरे विधि-विधान और मंत्रोच्चारण के साथ अपने पूर्वजों के निमित्त पितृ पक्ष में श्राद्ध एवं दान पुण्य करना चाहिए ताकि वे पितृ चाहे किसी भी योनि में पहुंचे हों, उन्हें तृप्ति मिले और ऐसा करके हम अपना नैतिक दायित्व भी पूर्ण करते हैं क्योंकि हम उनके ही वंशज हैं।
पुराणों में पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध का वर्णन अनेक दिव्य ऋषि मुनियों के द्वारा और पुराणों के अंतर्गत श्राद्ध के महत्व का वर्णन किया गया है और पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का सबसे अधिक महत्व माना गया है।
- ब्रह्म पुराण के अनुसार जो प्राणी शाक आदि के माध्यम से अपने पितरों के निमित्त श्राद्ध एवं तर्पण करता है, इससे उसके संपूर्ण कुल की वृद्धि होती है और उसके वंश का कोई भी प्राणी दुखी नहीं होता तथा उसे कोई कष्ट नहीं पहुँच पाता है। यदि पूरी श्रद्धा के साथ श्राद्ध किया गया है तो पिंडों पर गिरने वाली पानी की बूंदे भी पशु पक्षी की योनियों में पड़े हमारे पितरों का पूर्ण रूप से पोषण करती है और जिस वंश में कोई बालक बाल्यावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया हो वे भी मार्जन के जल से पूर्ण रूप से तृप्त हो जाते हैं।
- ब्रह्म पुराण के ही अनुसार ही पितरों के लिए उचित समय और विधि द्वारा जो वस्तु भी ब्राह्मणों को यथा पूर्वक दी जाए वह श्राद्ध का भाग्य कहलाती है। श्राद्ध एक ऐसा जरिया है जिसके द्वारा हम अपने पितरों को संतुष्ट करने के लिए तथा उनकी तृप्ति के लिए उन्हें भोजन, अन्न, जल आदि पहुँचाते हैं। पितरों को जो भोजन दिया जाता है वह एक पिंड के रूप में अर्पित किया जाता है और यही पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध का मुख्य अवयव होता है।
- वहीं कूर्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा भाव से शरद करता है उसके समस्त पापों का शमन हो जाता है और उसे दोबारा संसार चक्र में नहीं भटकना पड़ता था और उसे मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता।
- गरुड़ पुराण में भी इस बात को वर्णित किया गया है कि यदि पितृ पूजन किया जाए और उनसे हमारे पितृ संतुष्ट हो तो अपने वंशजों के लिए आयु संतान यश कीर्ति बल वैभव तथा धन की प्राप्ति का वरदान देते है।
- मार्कंडेय पुराण कहता है कि यदि आपके पितृ आपके द्वारा दिए गए श्राद्ध से तृप्त हो चुके हैं तो वह आपको आयु की वृद्धि, संतान की प्राप्ति, धन लाभ, विद्या में सफलता, सभी प्रकार के सुख, राज्य और मोक्ष प्रदान करने के लिए अपना आशीर्वाद देते हैं।
- वैसे तो हम अपने पितरों का श्राद्ध प्रत्येक महीने में आने वाली अमावस्या को कर सकते हैं, लेकिन पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने का विशेष महत्व है क्योंकि इस दौरान हमारे पितृ विशेष रूप से श्राद्ध को ग्रहण करने ही आते हैं।
पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का विशेष महत्व
हिंदू धर्म में व्यक्ति के कर्म और उसके पुनर्जन्म का विशेष संबंध देखा जाता है। यही वजह है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत उसका श्राद्ध कर्म करना अत्यंत आवश्यक माना गया है। ऐसी मान्यता है कि यदि किसी व्यक्ति के द्वारा उसके पूर्वजों का पूरे विधि-विधान से श्राद्ध अथवा तर्पण ना किया जाए तो उस जीव की आत्मा को मुक्ति प्राप्त नहीं होती और वह इस संसार में ही रह जाती है और अपने वंशजों से बार-बार यह उम्मीद रहती है कि वह उसके मुक्ति के मार्ग को खोलने के लिए श्राद्ध कर्म करें।
यहां पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि विशेष रूप से जौ और चावल में मेधा की प्रचुरता होने के कारण और ये दोनों ही सोम से संबंधित होने के कारण पितृ पक्ष में यदि इन्ही से पिंडदान किया जाए तो पितृ अपने 28 अंश रेतस को पाकर तृप्त हो जाते हैं और उन्हें प्रचुर शक्ति मिलती है और इसके बाद वे सोम लोक में ये रेतस के अंश देकर अपने लोक में चले जाते हैं।
अर्थात जो पूर्ण श्रद्धा के साथ किया जाये, वही श्राद्ध है। पितृ पक्ष के दौरान जब किसी जातक द्वारा अपने पूर्वजों के निमित्त तर्पण आदि किया जाता है उसके कारण वह पितृ स्वयं ही प्रेरित होकर आगे बढ़ता है। जब पिंडदान होता है तो उस दौरान परिवार के सदस्य जो या चावल का पिंडदान करते हैं इसी मे रेतस का अंश माना जाता है और पिंडदान के बाद वह पितृ उस अंश के साथ सोम अर्थात चंद्र लोक में पहुंच कर अपना अम्भप्राण का ऋण चुकता कर देता है।
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितृ चक्र ऊपर की ओर गति करने लगता है जिसके कारण 15 दिन के बाद पितृ अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितृ लोक की ओर रवाना हो जाते हैं। यही पितृपक्ष है और इसी वजह से इसका इतना महत्व है। सुषुम्ना नाड़ी जिसका संबंध सूर्य से माना गया है उसी के द्वारा अन्य दिनों में श्राद्ध किया जाता है। इसी नाड़ी के द्वारा श्रद्धा मध्यान्ह काल में पृथ्वी पर प्रवेश करती है और यहां से पितृ के भाग को लेकर चली जाती है जबकि पितृ पक्ष के दौरान पितृप्राण की स्थिति चंद्रमा के उर्ध्व प्रदेश में होती है और वे स्वयं ही चंद्रमा की परिवर्तित स्थिति होने के कारण पृथ्वी लोक पर व्याप्त होते हैं। यही वजह है जो पितृ पक्ष में तर्पण को इतना अधिक महत्व दिलाती है।
पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥29॥
गीता सार के अनुसार इस श्लोक का अर्थ यह है कि भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे धनंजय! संसार के विभिन्न नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं, पितरों में अर्यमा तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं। इस प्रकार अर्यमा को भगवान श्री कृष्ण द्वारा महिमामंडित किया गया है। अब आइए जानते हैं कि अर्यमा का पितृपक्ष अथवा पितरों से क्या संबंध है।
ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि सभी पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ हैं। अर्यमा ही सभी पितरों के देव माने जाते हैं। इसलिए अर्यमा को प्रणाम। हे पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें। इसलिए वैशाख मास के दौरान सूर्य देव को अर्यमा भी कहा जाता है।
अथर्ववेद में अश्विन मास के दौरान पितृपक्ष के बारे में कहा गया है कि शरद ऋतु के दौरान जब छोटी संक्रांति आती है अर्थात सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है तो इच्छित वस्तुओं में पितरों को प्रदान की जाती हैं, यह सभी वस्तुएँ स्वर्ग प्रदान करने वाली होती है।
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक की अवधि के दौरान पितृ प्राण ऊपरी किरण अर्थात अर्यमा के साथ पृथ्वी पर व्याप्त होते हैं। इन्हें महर्षि कश्यप और माता अदिति का पुत्र माना गया है और देवताओं का भाई। इसके अतिरिक्त उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास स्थान माना गया है। कुछ स्थानों पर इन्हें प्रधान पितृ भी माना गया है। यदि यह प्रसन्न हो जाएं तो पितरों की तृप्ति हो जाती है इसी कारण रद्द करते हुए इनके नाम को लेकर जल दान किया जाता है।
क्या होता है पिंडदान?
पितृपक्ष के दौरान विशेष रूप से पितृ पृथ्वी पर उपस्थित होते हैं। उनकी यही अभिलाषा होती है कि उनके वंशज उनकी सद्गति के लिए उनके निमित्त पिंडदान करें अथवा उनका श्राद्ध कर्म करें। मुख्य रूप से समझा जाए तो अपने पितरों की पति के लिए पूर्ण श्रद्धा के साथ जो कुछ भी अर्पित किया जाता है तथा जो कुछ भी नियम पूर्वक संपादित किया जाता है वही श्राद्ध कहलाता है।
जब तक व्यक्ति का दसगात्र तथा षोडशी पिंडदान नहीं किया जाता वह प्रेत रूप में रहता है और सपिण्डन अर्थात पिंडदान के उपरांत ही वह पितरों की श्रेणी में शामिल हो जाता है। यही मुख्य वजह है कि किसी भी मृत व्यक्ति का पिंडदान किया जाता है।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।
अर्थात् जो व्यक्ति अपने पितरों को तिल मिश्रित जल की तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके द्वारा उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के सभी पापों का नाश अर्थात अंत हो जाता है। पितरों को तृप्ति प्रदान करने के उद्देश्य से विभिन्न देवताओं ऋषि यों तथा पितृ देवों को तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया ही तर्पण कहलाती है। संक्षेप में तर्पण करना ही पिंड दान करना है लेकिन इसका स्वरूप थोड़ा भिन्न होता है जिसमें पिंड बनाकर उसका दान किया जाता है। सामान्यता पिंडदान करने के बाद श्राद्ध कर्म करने की आवश्यकता नहीं रहती। लेकिन जब तक पिंडदान ना किया जाए तब तक श्राद्ध कर्म आवश्यक रूप से करना चाहिए।
पितृपक्ष का महत्व केवल उत्तर भारत ही नहीं बल्कि उत्तर पूर्व भारत में भी अत्यधिक है। इसे केरल राज्य में करिकडा वावुबली, तमिलनाडु में आदि अमावसाई और महाराष्ट्र राज्य में पितृ पंधरवडा के नाम से जाना जाता है। सभी स्थानों के लोग इस कार्य को अत्यंत श्रद्धा भक्ति के साथ संपन्न करते हैं। इस पितृपक्ष के दौरान पितृ धरती पर आते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके वंशज उनको सद्गति देने के लिए अपना दायित्व निभाएंगे और श्राद्ध तथा पिंड दान जैसे शुभ कार्य करेंगे और उन्हें भोजन तथा तृप्ति मिलेगी।
ऐसा तब होता है जब सूर्य देव कन्या राशि में विराजमान होते हैं, लेकिन पितरों की प्रतीक्षा यहीं तक नहीं रहती बल्कि जब तक सूर्य तुला राशि में रहते हैं उस पूरे कार्तिक मास में वे अपने वंशजों का इंतजार करते हैं कि वे उनका श्राद्ध आदि कर्म कर सके। लेकिन यदि तब तक भी वंशजों द्वारा श्राद्ध कर्म या पिंड दान ना किया जाए तो जैसे ही सूर्य देव का वृश्चिक राशि में गोचर होता है सभी पितृ निराश होकर अपूर्ण मन से अपने स्थान पर लौट आते हैं और अपने वंशजों को श्राप देते हैं जिसके कारण उनके वंशज धरती लोक पर अनेक प्रकार के कष्ट भोगते हैं। इसे किसी व्यक्ति की कुंडली में पितृदोष के रूप में भी देखा जा सकता है।
पितृपक्ष, श्राद्ध और पिंड दान से संबंधित कथाएं
पितृ पक्ष को महिमामंडित करती हुई कुछ कथाएं भी प्रचलित है, जिनके द्वारा पितृपक्ष के महत्व के बारे में पता चलता है। इस संबंध में यह जानना आवश्यक है कि जब कोई व्यक्ति इस धरती पर जीवन लेता है तो जन्म लेते के साथ ही उस पर तीन प्रकार के ऋण उपस्थित होते हैं। ये तीनों देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण के नाम से जाने जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति पितृपक्ष के दौरान इन तीनों ही ऋणों से मुक्त हो सकता है। इन्हीं ऋणों के संदर्भ में महाभारत काल में वीर कर्ण की एक कहानी काफी प्रचलित है।
उस कथा के अनुसार जब महाभारत के युद्ध में कर्ण को वीरगति प्राप्त हुई तो उनकी आत्मा चित्रगुप्त से मोक्ष प्राप्ति की कामना करने लगी जिन्होंने मोक्ष देने से मना कर दिया। तो कर्ण ने पूछा कि मैंने तो अपना समस्त जीवन पुण्य कर्मों में ही समर्पित किया है और सदैव दान दिया है तो अब मुझ पर कौन सा ऋण बाकी है जिसकी वजह से मुझे मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती, इस पर चित्रगुप्त ने कहा कि निसंदेह आपने अनेक सत्कर्म किए हैं और उसी वजह से आपने अपने जीवन में आने वाले दो ऋण देव ऋण और ऋषि ऋण चुका दिया है लेकिन आपके ऊपर अभी तक पितृऋण चुकाना बाकी है। इसलिए जब तक आप इस ऋण को नहीं चुका देते, तब तब आपको मोक्ष नहीं मिल सकता।
इसके पश्चात् अपने पितृ ऋण को चुकाने के लिए कर्ण को धर्मराज ने यह अवसर दिया कि आप पितृपक्ष के दौरान 16 दिन के लिए पूरी पृथ्वी पर जाकर अपने ज्ञात और अज्ञात सभी पितरों के तर्पण और श्राद्ध कर्म को कीजिए, तदुपरांत विधिवत पिंड दान करके पुनः लौट कर आइए तभी आप को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इसके बाद कर्ण पृथ्वी पर पुनः लौटे और समस्त कार्य विधि पूर्वक संपन्न कर मोक्ष के भागी बने। इससे ज्ञात होता है कि पितृ ऋण हमारे जीवन में कितना महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली है।
वाल्मीकि रामायण के अंतर्गत भी श्री राम, लक्ष्मण एवं माता सीता को महाराज दशरथ की आत्मा को मोक्ष प्रदान करने के निमित्त पिंडदान करने का प्रसंग आता है। जब श्री राम माता सीता और लक्ष्मण जी सहित अपना वनवास व्यतीत कर रहे थे तो पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए वे गया धाम पहुंच गए थे। वहां पर जरूरी सामग्री जुटाने हेतु वह आश्रम से दूर चल दिए लेकिन तब तक दोपहर हो चुकी थी और कुतुप वेला आ चुकी थी, इसी वेला में श्राद्ध करना आवश्यक था लेकिन राम और लक्ष्मण लौटकर नहीं आए थे और इस कारण पिंडदान का समय निकलने वाला था। इसी दौरान समय बीतता जा रहा था और तब महाराज दशरथ की आत्मा ने पिंड दान की मांग की तो माता सीता ने राम और लक्ष्मण जी की अनुपस्थिति में फल्गु नदी के किनारे वटवृक्ष, केतकी के फूल, फल्गु नदी और गौ माता को साक्षी मानकर बालू का एक पिंड बनाया और महाराजा दशरथ के निमित्त पिंडदान कर दिया।
समय बीतने के उपरांत जब श्री राम लक्ष्मण जी सहित वापस लौटे तो सीता जी ने कहा कि समय निकलता जा रहा था इसलिए उन्होंने महाराज दशरथ का पिंडदान कर दिया है। श्री रामचंद्र आश्चर्य में पड़ गए और उन्होंने पूछा कि सामग्री के बिना पिंडदान कैसे संभव है तो सीता जी से इसके लिए उन्होंने प्रमाण मांगा। तब सीताजी ने कहा की उपरोक्त सभी साक्षी हैं कि मैंने श्राद्ध कर्म किया है और उसकी गवाही दे सकते हैं। जब श्रीराम ने उन सभी से पूछा तो केवल वटवृक्ष ने इस बात को स्वीकार किया और कहा कि माता सीता ने पिंडदान किया है लेकिन अन्य तीनों अर्थात गाय, केतकी का फूल और फल्गु नदी तीनों साक्ष्य देने से मुकर गए। तब माता सीता ने महाराज दशरथ की आत्मा से प्रार्थना की, कि वे इस संदर्भ में उनकी सहायता करें तब महाराज दशरथ ने माता सीता की प्रार्थना स्वीकार किया और घोषणा की कि सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया है। इसके पश्चात श्री रामचंद्र जी आश्वस्त हो गए। लेकिन सीताजी अन्य तीनों पर गवाही ना देने के कारण क्रोधित हो उठीं और उन्हें श्राप दे दिया। उनके शाप के कारण फल्गु नदी सूखी रहती है, गौ माता को पूजनीय होने के बावजूद भी झूठा खाना पड़ता है और केतकी के फूल का पूजा में प्रयोग नहीं किया जाता। इसके साथ ही वटवृक्ष को माता के आशीर्वाद से लंबी आयु मिली और दूसरों को छाया प्रदान करने के कारण वह पूजनीय हो गया। आज भी स्त्रियाँ वट वृक्ष की पूजा कर अपने पति की लंबी आयु की कामना करती हैं और फल्गु नदी के तट पर सीता कुंड में पानी का अभाव होता है जिसके कारण बालू या रेत से भी पिंड दान दिया जाता है।
यह उपरोक्त दोनों कथाएं आज भी प्रासंगिक हैं और पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध कर्म वितरण और पिंडदान के बारे में मान्यता देती हैं।
पितृ पक्ष में पिंडदान हेतु गया का महत्व
जिस प्रकार किसी भी शुभ कार्य को करने के लिए एक विशेष समय और स्थान की आवश्यकता होती है उसी प्रकार किसी भी पितृ की शांति करने के लिए पितृ पक्ष में पिंडदान सर्वोत्तम माना गया है, लेकिन यह किस स्थान पर किया जाए इसके बारे में बात करते हैं। गया को हमारे शास्त्रों में विशेष महत्व दिया गया है और यही वजह है कि इन्हें पाँचवाँ धाम भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि पितरों का पिंडदान गया में करने से उन्हें मुक्ति शीघ्र मिल जाती है।
संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध गया पिण्ड दान, श्राद्ध और तर्पण हेतु भारत वर्ष के बिहार राज्य में स्थित हैं और इनका नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। भगवान विष्णु द्वारा इसी जगह पर अशोक गया सुर का वध करने के कारण इसका नाम गया पड़ा। लेकिन यहां सम्मान और श्रद्धा के कारण इनके नाम के आगे जी लगाया जाता है यही वजह है कि ने गया के नाम से जाना जाता है। यहां पर श्री विष्णु पद मंदिर स्थित है और ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु के चरण वहां उपस्थित हैं।
गया में ही फल्गु नामक एक नदी है जहां त्रेता युग में भगवान श्री रामचंद्र ने अपने पिता दशरथ की आत्मा की तृप्ति हेतु पिंडदान किया था। तभी से ये स्थान अत्यंत महत्व रखता है और दूर-दूर से लोग यहां पर आपकर पूजा पाठ करते हैं तथा अपने पितरों के निमित्त पिंडदान करते हैं।
हमारे ऐसे अनेक पूर्वज हैं जिन्हें दोबारा जन्म प्राप्त नहीं हुआ या फिर वह अभी तक अतृप्त हैं और आसक्त भाव में लिप्त आत्मा के रूप में विचरण कर रहे हैं ऐसे में उनकी मुक्ति तथा तृप्ति के उद्देश्य से कर्म तर्पण किया जाता है और साथ ही साथ पिंड दान भी किया जाता है। इन सभी कार्यों के लिए गया से बेहतर कोई स्थान नहीं है। यहां पर अग्नि के माध्यम से अन्न तथा जल आदि को हमारे पितरों तक पहुँचाकर उन्हें तृप्ति प्रदान करने का सिद्ध कार्य किया जाता है।
पितृ पक्ष अमावस्या / पितृ विसर्जनी अमावस्या
पितृ पक्ष के दौरान पड़ने वाली अमावस्या को महालय अमावस्या भी कहा जाता है। सूर्य की सबसे महत्वपूर्ण किरणों में अमा नाम की एक किरण है उसी के तेज से सूर्य देव समस्त लोकों को प्रकाशित करते हैं। उसी अमामी विशेष तिथि को चंद्र का भ्रमण जब होता है तब उसी किरण के माध्यम से पितर देव अपने लोक से नीचे उतर कर धरती पर आते हैं। यही कारण है कि श्राद्ध पक्ष की अमावस्या अर्थात पितृ पक्ष की अमावस्या बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस दिन समस्त पितरों के निमित्त दान, पुण्य आदि करने से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है और पितृ गण भी प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद देते हैं। यदि इसी अमावस्या तिथि के साथ संक्रांति काल हो, या व्यतिपात अथवा गजछाया योग हो, या फिर मन्वादि तिथि हो, या सूर्य ग्रहण अथवा चंद्र ग्रहण हो तो इस दौरान श्राद्ध कर्म करना अत्यंत फलदायी होता है। वैसे तो पितृपक्ष के दौरान सभी तिथियाँ अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं, लेकिन इन सभी के बीच अमावस्या विशेष स्थान रखती है क्योंकि यह विशेष रूप से पितरों की तिथि मानी जाती है। इस अमावस्या को पितृविसर्जनी अमावस्या अथवा महालया अमावस्या के नाम से भी जाना जाता है। जिन लोगों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती उन सभी का श्राद्ध इसी तिथि को किया जा सकता है।
पितृ पक्ष में पिंड दान कौन और कैसे करे?
हमारे विभिन्न शास्त्रों में पितृपक्ष के दौरान पिंडदान करने के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया है।
- ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार सबसे बड़ा पुत्र अपने पिता और अन्य पूर्वजों का श्राद्ध तथा तर्पण आदि कार्य कर सकता है।
- यदि सबसे बड़ा पुत्र ना हो तो सबसे छोटा पुत्र भी यह कार्य कर सकता है।
- सबसे बड़े पुत्र और सबसे छोटे पुत्र की अनुपस्थिति में भांजा, भतीजा अथवा पोता पिंड दान का कार्य कर सकते हैं।
- पितृ पक्ष में श्राद्ध कर्म के रूप में पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज आदि तीन मुख्य कार्य किए जाते हैं।
- सर्वप्रथम दक्षिण दिशा की ओर मुख करके आचमन करें एवं अपने जनेऊ को दाएँ कंधे पर रखकर गौ दुग्ध, धान अर्थात चावल, शक्कर, शहद और घी को मिलाकर पिंडों का निर्माण करें और इन्हें अत्यंत श्रद्धा भाव के साथ अपने पितृ देवों को अर्पित करें, यही पिंड दान करना कहलाता है। दक्षिण दिशा पितरों की दशा मानी जाती है यही वजह है कि दक्षिण की ओर मुख करके ही यह कार्य करना चाहिए।
- तर्पण करते समय जल के अंदर काले तिल, कुशा और जो तथा सफेद पुष्प मिलाकर विधि पूर्वक तर्पण किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे समस्त पितृ तृप्त हो जाते हैं और उन्हें सद्गति मिलती है।
- इसके बाद तृतीय कार्य प्रारंभ होता है जिसे ब्राह्मण भोज कहा जाता है।
- पितृ पक्ष के दौरान एक बात का विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए कि इन 16 दिनों के दौरान आपके घर में कोई भी अनजान या जाना पहचाना अतिथि किसी भी रूप में आ सकता है अर्थात कोई पक्षी, पशु अथवा कोई भिक्षुक या कोई मिलने जुलने वाला। यह सभी आपके पितृ भी हो सकते हैं जो आपसे भोजन ग्रहण करने आए हों। इसलिए इस दौरान घर आए किसी भी प्राणी का अनादर ना करें।
- पितृ पक्ष की संपूर्ण अवधि में ब्रह्मचर्य का पालन करें और मांस मदिरा के सेवन से दूर रहे।
- इसके अतिरिक्त आप अपनी श्रद्धा अनुसार मूक पशु पक्षियों को भी भोजन करा सकते हैं।
- श्राद्ध कर्म मध्यान्ह काल में कुश के आसन पर बैठकर ही करना चाहिए। इसी समय के दौरान कुतुप वेला होती है जो सामान्यतः 12:30 बजे से 1:00 बजे के बीच का समय होता है।
- इस दौरान एक थाली में कौवा, गाय, कुत्ता तथा दूसरी थाली में पितरों के निमित्त भोजन रखें।
- दोनों भाइयों में भोजन की मात्रा समान रखें। इसके बाद सर्वप्रथम गौ माता, फिर कुत्ता और फिर कौवे के लिए भोजन निकाले।
- तत्पश्चात अपने पितरों का स्मरण करें और जिन पितृ देव के लिए आप श्राद्ध कर रहे हैं उनको याद करते हुए इस मंत्र का 3 बार उच्चारण करें: "ॐ देवाभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नम: स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्तु ते।।"
- इसके बाद इस भोजन को इसके स्वामियों को अर्पित करते हैं।
- यदि आपके लिए इतना कर पाना संभव ना हो तो केवल एक लोटे में थोड़ा जल और काले तिल, जौ आदि मिलाकर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके आप तर्पण कर सकते हैं।
- यदि भोजन बनाने का सामर्थ्य ना हो अथवा ऐसी स्थिति ना हो तो आप फल और मिठाई आदि का दान भी कर सकते हैं।
पितृ पक्ष में दान का महत्व
जिस प्रकार सभी शुभ एवं पुण्य कार्य में दान दक्षिणा आदि कर्म किए जाते हैं उसी प्रकार पितृपक्ष के दौरान पितरों की शांति के निमित्त दान करने का विशेष महत्व माना गया है। ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान 10 तरह के दान किए जा सकते हैं, जो निम्नलिखित हैं:
- गाय
- भूमि
- वस्त्र
- काले तिल
- सोना
- घी
- गुड़
- धान
- चाँदी
- नमक
इस प्रकार दान आदि के द्वारा भी पितरों को तृप्त प्रदान करने हेतु कार्य किए जा सकते हैं। पितरों के निमित्त तर्पण करने से पूर्व सर्वप्रथम दिव्य पितृ तर्पण करना होता है, उसके उपरांत देव तर्पण करने का विधान है, तदुपरांत ऋषि तर्पण किया जाता है और और उसके बाद दिव्य मनुष्य तर्पण करने के बाद ही स्वयं पितृ तर्पण किए जाने की परंपरा है। आपके पितृ चाहे किसी भी प्रकार की योनि में क्यों ना हो वह आपके द्वारा किए गए श्राद्ध का अंश स्वीकार करते हैं और इससे उन्हें पुष्टि मिलती है और उन्हें विभिन्न प्रकार की निकृष्ट योनियों से मुक्ति मिलती है और उनकी आत्मा हल्की होकर उच्च योनि में जाने को प्रयासरत होती है।
पितरों का श्राद्ध ना करना उनको दुख पहुँचाना ही है और वास्तव में जहां इससे आपको पितरों का श्राप मिल सकता है वहीं दूसरी और आपके पुत्र अतृप्त रहने से आप अपने नैतिक कर्तव्य से भी विमुख माने जाएंगे। यही वजह है कि हमारे विभिन्न प्रकार के पुराणों जैसे कि ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, वायु पुराण, वाराह पुराण, गरुड़ पुराण आदि में तथा मनु स्मृति एवं महाभारत जैसे महान ग्रंथों में भी श्राद्ध एवं तर्पण की महिमा का वर्णन किया गया है।
वास्तव में पितृपक्ष हमारे लिए एक शुभ अवसर है जिसके दौरान हम अपने पितरों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट कर सकते हैं और उनकी कृपा और आशीर्वाद से हम अपने जीवन को धन्य बना सकते हैं।
हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा प्रस्तुत पितृपक्ष (Malahalaya), श्राद्ध, तर्पण, गया के बारे में दी गई जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होगी और इसकी सहायता से आप भी अपने पितरों की शांति के निमित्त विभिन्न प्रकार के कार्य करेंगे और अपना जीवन सफल बनाएँगे।
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