विष्णु सहस्रनाम पाठ में जगत के पालनहार भगवान विष्णु जी के एक हज़ार नामों का उल्लेख है। धार्मिक दृष्टि से यह बेहद प्रचलित और प्रमुख स्तोत्र है। इस स्तोत्र में उल्लेखित हरि के नाम उनके गुणों को दर्शाते हैं। मान्यता है कि जो व्यक्ति विष्णु सहस्रनाम का पाठ करता है उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं, जीवन के समस्त प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं।
भगवान विष्णु न्याय को प्रश्रय और अन्याय के विनाशक हैं। वे जीव-जंतुओं को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग दिखाने हेतु विभिन्न रूपों में अवतार लेने प्रभु हैं। माँ लक्ष्मी उनकी पत्नी और कामदेव उनके पुत्र हैं। क्ष्रीर सागर में वह वासुकि नाग के ऊपर विराजमान होते हैं। पुराणों में विष्णु पुराण में हरि नारायण के बारे में विस्तार से बताया गया है।
विष्णु सहस्रनाम पाठ (Vishnu Sahastra Path) की रचना द्वापरयुग में हुई थी। इसी युग में कौरवों और पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र की रणभूमि में महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। यह युद्ध 18वें दिनों तक चला था। कहते हैं कि इस युद्ध का परिणाम बहुत ही विनाशक था। इसमें जान-माल की भारी बर्वादी हुई थी। इसी बर्वादी को देखकर पाण्डव पुत्र युधिष्ठित का हृदय विचलित हो गया था। उधर बाणों की शय्या पर लेटे भीष्म भी अपने प्राण त्यागने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
समय उचित पाकर भगवान वेदव्यास और श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सर्वोच्च ज्ञानी भीष्म से धर्म व नीति के विषय में उपदेश लेने की प्रेरणा दी। अपने सभी भाई समेत कृष्ण को साथ लिए युधिष्ठिर पितामह भीष्म के पास पहुँच गए और सभी उन्हें आदरपूर्वक नमस्कार किया। धर्म व नीति के विषय मे विचार करते किए प्रश्न व भीष्म का विवरण सहित उत्तर ही यह सहस्रनाम स्तोत्र है।
श्री विष्णु सहस्रनाम के संपूर्ण पाठ को तीन प्रमुख भागों में बांटा गया है। सबसे पहले भाग को पूर्व पीठिका, दूसरे को उत्तर पीठिका और तीसरे को फलश्रुति के नाम से जानते हैं। पहले स्तोत्र के पहले भाग में सर्वप्रथम गणेश भगवान उसके पश्चात् भगवान विष्णु जी को नमन किया गया है। इसके पश्चात् युधिष्ठिर द्वारा बाणों की शय्या पर लेटे भीष्म पितामह से प्रश्न हैं। उन्होंने पितामह से पूछा है कि :-
सभी लोकों में सर्वोपरि देव कौन?
सांसारिक जीवन का लक्ष्य क्या है?
किसकी स्तुति व पूजा से मानव का कल्याण होता है?
सबसे उत्तम धर्म कौनसा है।
किसका नाम जपने से व्यक्ति को इस जीवन चक्र से मुक्ति मिलती है?
पितामह ने युधिष्ठिर के इन सवालों का जवाब देते हुए कहा है कि "जगत के प्रभु, देवों के देव, अनंत व पुरूषोत्तम विष्णु के सहस्रनाम के जपने से, अचल भक्ति से, स्तुति से, आराधना से, ध्यान से, नमन से मनुष्य को संसार के बंधन से मुक्ति मिलती है। यही सर्वोत्तम धर्म है।"
स्तोत्र में पितामह के द्वारा दिए गए युधिष्ठिर को जवाब उत्तर पीठिका के अंतर्गत आते हैं। उन्होंने इस दौरान भगवान विष्णु जी के एक हज़ार नाम गिनाएँ हैं, जिन्हें विष्णु सहस्रनाम कहा जाता है। वहीं तीसरे भाग में श्री विष्णु सहस्रनाम पाठ करने के बाद मिलने वाले फलों को बताया गया है। यानि इसके लाभों के बारे में भीष्म पितामह पाण्डवों को बताते हैं।
ॐ श्री परमात्मने नमः।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
अथ श्रीविष्णुसहस्त्रनाम स्तोत्रम
यस्य स्मरणमात्रेन जन्मसंसारबन्धनात्।
विमुच्यते नमस्तमै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥
नमः समस्तभूतानां आदिभूताय भूभृते।
अनेकरुपरुपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥
वैशम्पायन उवाच
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः।
युधिष्टिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत।1।
युधिष्टिर उवाच
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम्।2।
को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात्।3।
भीष्म उवाच
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन्नामसहस्त्रेण पुरुषः सततोत्थितः।4।
तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम्।
ध्यायन्स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च।5।
अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम्।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत्।6।
ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम्।
लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भभवम्।7।
एष मे सर्वधर्माणां धर्माऽधिकतमो मतः।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा।8।
परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः।
परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायण्म्।9।
पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम्।
दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता।10।
यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये।11।
तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते।
विष्णोर्नामसहस्त्रं मे श्रॄणु पापभयापहम्।12।
यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः।
ॠषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये।13।
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः।14।
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च।15।
योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः।
नारसिंहवपुः श्रीमान्केशवः पुरुषोत्तमः।16।
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः।
सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः।17।
स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः।18।
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः।19।
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम्।20।
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः।21।
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान्।22।
सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः।23।
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युत।
वृषाकपरिमेयत्मा सर्वयोगविनिःसृतः।24।
वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्मा सम्मितः समः।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः।25।
रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः।
अमृतः शाश्वतः स्थाणुर्वरारोहो महातपाः।26।
सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित्कविः।27।
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माधक्षः कृताकृतः।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः।28।
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः।29।
उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरुर्जितः।
अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः।30।
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः।31।
महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक।32।
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः।
अनिरुध्दः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः।33।
मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः।34।
अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान्स्थिरः।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रृतात्मा सुरारिहा।35।
गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः।
निमिषोऽनिमिषः स्त्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः।36।
अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान्न्यायो नेता समीरणः।
सहस्त्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्।37।
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः।38।
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः।39।
असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः।40।
वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः।41।
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः।
नैकरुपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः।42।
ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः।43।
अमृतांशूद्भवो भानुः शशविन्दुः सुरेश्वरः।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः।44।
भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः।45।
युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः।
अदृश्योऽव्यक्तरुपश्च सहस्त्रजिदनन्तजित्।46।
इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः।47।
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः।
अपां निधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः।48।
स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः।49।
अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः।50।
पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत्।
महर्ध्दिर्ऋध्दो वृध्दात्मा महाक्षो गरुडध्वजः।51।
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान्समितिञ्जयः।52।
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः।53।
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनोगुहः।54।
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः।
परर्ध्दिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः।55।
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयोऽनयः।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः।56।
वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः।57।
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः।58।
विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम्।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः।59।
अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयुपो महामखः।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः।60।
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम्।61।
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत्।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः।62।
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत्।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः।63।
धर्मगुब्धर्मकृध्दर्मी सदसत्क्षरमक्षरम्।
अविज्ञाता सहस्त्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः।64।
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः।65।
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः।66।
सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः।67।
जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः।
अम्भोनिधिरनन्तामा महोदधिशयोऽन्तकः।68।
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः।69।
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत्।70।
महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः।71।
वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः।72।
भगवान् भगहानन्दी वनमाली हलायुधः।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः।73।
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः।
दिविस्पृक्सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः।74।
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक्।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम्।75।
शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः।76।
अनिवर्ती निवृत्तामा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः।77।
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः।78।
स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः।
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः।79।
उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः।80।
अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुध्दात्मा विशोधनः।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः।81।
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः।82।
कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनंजयः।83।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः।
ब्रह्मविद्ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः।84।
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः।85।
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः।86।
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः।87।
सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः।88।
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः।89।
विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान्।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः।90।
एको नैकः सवः कः किं यत्पदमनुत्तमम्।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः।91।
सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः।92।
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक्।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः।93।
तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृङ्गो गदाग्रजः।94।
चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात्।95।
समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा।96।
शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः।97।
उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः।
अर्को वाजसनः श्रृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी।98।
सुवर्णविन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः।
महाह्र्दो महागर्तो महाभूतो महानिधिः।99।
कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः।
अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः।100।
सुलभः सुव्रतः सिध्दः शत्रुजिच्छ्त्रुतापनः।
न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः।101।
सहस्त्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः।102।
अणुर्बृहत्कृशः स्थूलोगुणभृन्निर्गुणो महान्।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्द्धनः।103।
भारभृत्कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः।104।
धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः।
अपराजितः सर्वसहो नियन्तानियमोऽयमः।105।
सत्ववान्सात्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः।106।
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः।107।
अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकदोऽग्रजः।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः।108।
सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरप्ययः।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः।109।
अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः।110।
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः।111।
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दु:स्वप्ननाशनः।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः।112।
अनन्तरुपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः।
चतुरस्त्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः।113।
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः।114।
आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः।115।
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः।
तत्वं तत्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः।116।
भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः।
यज्ञॊ यज्ञोपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः।117।
यज्ञभृद्यज्ञकृद्यज्ञी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः।
यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च।118।
आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः।119।
शङ्खभृन्नदकी चक्री शार्ङ्ग्धन्वा गदाधरः।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः।120।
॥ सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति ॥
ईश्वर की अनुकंपा या कृपा दृष्टि पाने के लिए रचित स्तोत्र बेहद ही प्रभावशाली होते हैं। अगर सच्चे हृदय से स्तोत्र का पाठ किया जाए और मन में प्रभु अथवा संबंधित देवी-देवता का ध्यान किया जाए तो वे शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं और पाठक करने वाले व्यक्ति को अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं। साथ ही उनके ऊपर कृपा दृष्टि भी बनाए रखते हैं। इसी प्रकार जो व्यक्ति श्री विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करता है उसे विष्णु के आशीर्वाद के साथ-साथ कई तरह के लाभ प्राप्त होते हैं। विष्णु सहस्रनाम पाठ करने से व्यक्ति को आध्यात्मिक सुखों का अनुभव होता है।
वहीं धार्मिक दृष्टि से देखें तो पाठ करने वाला व्यक्ति सीधे विष्णु से जुड़ जाता है। वहीं चिकित्सीय दृष्टि से देखें तो स्वयं आयुर्वेद के जनक ऋषि ने एक श्लोक में कहा है कि, विष्णु रं स्तुवन्नामसहस्त्रेण ज्वरान् सर्वनपोहति। अर्थात विष्णु सहस्रनाम के पाठ से ज्वर (बुखार) दूर हो जाता है।
विष्णु सहस्रनाम पाठ से जातकों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।
पाठ करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता मिलती है।
विष्णु सहस्रनाम पाठ से कार्य क्षेत्र में बिगड़े काम बन जाते हैं।
यदि कोई व्यापारी विधि पूर्वक विष्णु सहस्रनाम पाठ करे तो उसके व्यापार में वृद्धि होती है।