उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। इस ग्रंथ में ब्रह्म यानी ईश्वरीय सत्ता के स्वभाव और आत्मा के बीच अंतर्संबंध की दार्शनिक तथा ज्ञान-पूर्वक संपूर्ण व्याख्या की गई है। उपनिषद् को श्रुति ग्रंथ में शामिल किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि उपनिषद् ही सभी भारतीय दर्शनों की जड़ है। फिर चाहें वह वेदांत, सांख्य, जैन या फिर बौद्ध ही क्यों न हो। हालाँकि उपनिषद को समझ पाना आसान नहीं है। क्योंकि इसमें परमज्ञान, परमविद्या और इस लोक की परिधि से बाहर की बातें की गई हैं। इसमें इस संसार का गूढ़ ज्ञान निहित है।
साथ ही उपनिषद देव वाणी संस्कृत में लिखे गए हैं और इनकी भाषा शैली भी गद्य और पद्य दोनों ही रुपों में है। उपनिषदों में गुरु शिष्यों के बीच संवाद को प्रकट किया गया है जिसमें शिष्य अपने गुरु से अपनी जिज्ञासाओं को पूछ रहे हैं और गुरु अपने शिक्षक की उनकी उन जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे हैं। जैसे कि गुरुओं ने अपने शिष्यों की सभी शंकाओं को सिद्धांतों के अनुसार दूर किया है।
वहीं इसमें याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी के मध्य हुआ वह संवाद भी वर्णित किये गए हैं जो मनुष्यों के मन में धन आदि के मोह के प्रति वैराग्य उत्पन्न करते हैं। इतिहासकार मैक्समूलर ने इन उपनिषदों का अनुवाद किया था। इसके अलावा मुगल काल में दारा शिकोह ने फारसी भाषा में उपनिषदों का अनुवाद किया था।
उपनिषद् संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है - समीप बैठना। यानि ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। यहाँ सद् धातु के तीन अर्थ हैं: विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना है। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत गूढ संवाद है जो पाठकों को वेदों का वास्तविक मर्म बतलाता है।
भारत अपनी प्राचीन और समृद्धशाली महान सभ्यता के लिए जाना जाता है। इसका मुख्य कारण है कि भारत अपने ज्ञान के कारण ही अन्य सभ्यताओं से ऊपर रहा है। भारत के ज्ञान का स्रोत यहाँ के महान ऋषि-मुनियों के द्वारा रचे गए धर्म ग्रंथ या वेद शास्त्र हैं और उपनिषद भी इन्ही का एक हिस्सा है। यूँ तो इतिहासकारों के बीच ये मतभेद है कि उपनिषदों की रचना कब हुई? लेकिन प्रसिद्ध इतिहासकार मैक्समूलर ने इनकी रचना का कालखण्ड 600 से 400 ईसा पूर्व बताया है।
वहीं श्रीराधाकृष्णन् के मतानुसार इनका रचनाकाल छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक माना जा सकता है। अब सवाल आता है कि उपनिषद की रचना कैसी हुई? इसकी उत्पत्ति के क्या कारण थे? यदि इस पर हम नज़र डालें तो यह ज्ञात होता है कि प्राचीन उपनिषदों में दार्शनिक चिंतन अधिक है। क्योंकि उपनिषदों की रचना हमारे ऋषि-मुनियों के द्वारा की गई सदियों की मेहनत का परिणाम है।
इसमें सृष्टि के उद्गम एवं उसकी रचना के संबंध में गहन चिंतन तथा स्वयंफूर्त कल्पना से उपजे रूपांकन को विविध बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। संक्षेप में कहा जाए तो संसार के गूढ़ ज्ञान तथा प्रत्यक्ष प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूप को समझने के लिए तथा लोगों को इसके वास्तविक मर्म को समझाने के लिए हमारे ऋषि मुनियों ने इनकी रचनाएँ की थी।
मूल रूप से उपनिषदों की संख्या 108 है, जिन्हें अलग-अलग कालखंड के रूप में वर्गीकृत किया गया है। जैसे -
हालाँकि 108 उपनिषदों में से 10 उपनिषदों को प्रमुख माना जाता है। इनमें ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य और बृहदारण्यक शामिल हैं। आदि गुरु शंकराचार्य ने इन्ही दस उपनिषदों पर अपना भाष्य दिया है। ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डक उपनिषद से ही लिया गया है। वैसे कुछ विद्वान कौषीतकि और श्वेताश्वरतर की भी, मुख्य उपनिषदों में गणना करते हैं। हालाँकि कुछ उपनिषदों को वेदों की संहिताओं का अंश माना गया है।
उपनिषद् को लेकर भारतीय प्रसिद्ध कवि रामधारीसिंह 'दिनकर' ने कहा है “अपनी समस्त सीमाओं के साथ सांसारिक जीवन ही वैदिक ऋषियों का प्रेय था। प्रेय को छोड़कर श्रेय की ओर बढ़ने की आतुरता उपनिषदों के समय जगी, जब मोक्ष के सामने गृहस्थ जीवन निर्रथक हो गया एवं जब लोग जीवन से आनंद लेने के बजाय उससे पीठ फेर कर संन्यास लेने लगे। हां, यह भी हुआ कि वैदिक ऋषि जहां यह पूछकर शांत हो जाते थे कि 'यह सृष्टि किसने बनाई?' और 'कौन देवता है जिसकी हम उपासना करें?' वहां उपनिषदों के ऋषियों ने सृष्टि बनाने वाले के संबंध में कुछ सिद्धांतों का निश्चयन कर दिया और उस 'सत्य' का भी पता पा लिया, जो पूजा और उपासना का वस्तुत: अधिकारी है। वैदिक धर्म का पुराना आख्यान वेद और नवीन आख्यान उपनिषद हैं।”
‘उपनिषदों की कथाएँ’ पुस्तक के लेखक महेश शर्मा के अनुसार, उपनिषद अध्यात्म विद्या अथवा ब्रह्मविद्या को कहते हैं। उपनिषद वेद का ज्ञानकाण्ड है। यह चिरप्रदीप्त वह ज्ञान दीपक है जो सृष्टि के आदि से प्रकाशमान है और जो शाश्वत है, सनातन है, और अक्षर है।
उपनिषद का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य के आत्मिक ज्ञान को बढ़ाना है। और इसी से प्रेरित होकर भारतीय दर्शन की लगभग सभी शाखाएँ उपनिषदों से मेल खाती हैं। मनुष्यों को अपने जीवन का वास्तविक ज्ञान हो, वह जान सके कि उसका जन्म किस उद्देश्य से हुआ है। उसके मन में उठने वाली सारी जिज्ञासाएँ शांत हो जाएँ। मनुष्य जीवन-मृत्यु के इस वास्तविक चक्र को समझ सके। इसी उद्देश्य के निमित्त उपनिषदों की रचना हुई है।
उपनिषदों के वास्तविक महत्व को यदि समझना है तो इन्हें पढ़कर ही बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। वास्तव में उपनिषदों में ज्ञान का भण्डार है। इसके ज्ञान से आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार होना संभव है। ये मनुष्य को उसके जीवन के वास्तविक मर्म से परिचित करवाने में सहायक हैं।
शास्त्रों के अनुसार, ऐसा कहा गया है कि चौरासी लाख योनियों की नैया पार करने के बाद हमें यह मनुष्य जीवन प्राप्त होता है लेकिन बावजूद हम इसके मर्म को समझने का प्रयास नहीं करते हैं और इसका कारण मात्र एक है-सत्य का ज्ञान न होना या उसकी कमी। यदि मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करना है तो वह ज्ञान उपनिषदों में है।